बाल एवं युवा साहित्य >> भारत के भवनों की कहानी भारत के भवनों की कहानीभगवतशरण उपाध्याय
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भारत के भवनों का सुन्दर वर्णन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारत एक महान् देश है, जिसके संबंध में परिचय देने वाली यह पुस्तकमाला भारत के सभी पक्षों का पूरा विवरण देती है। प्रत्येक पृष्ठ पर दो रंग में कलापूर्ण चित्र, सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्य। इस पुस्तकमाला के लेखक हैं, प्रसिद्ध साहित्यकार, इतिहास और कला के मर्मज्ञ डॉ. भगवतशरण उपाध्याय।
भारत के भवन
भारत के भवन दुनिया भर में अपनी तरह के अनूठे तो हैं ही, इनकी निर्माण कला और शैली भी दुनिया के सभी देशों से भिन्न है। अन्य देशों में प्रायः उसी एक शैली के भवन प्राप्त होते हैं, जिसकी संस्कृति का उस देश में प्रभुत्व रहा। जैसे यूरोप के सभी देशों में ईसाई धर्म ही प्रचलित रहा इसलिए उसी से प्रभावित शैलियों के ही भवन प्राप्त होते हैं। इटली और ग्रीस ही इसके अपवाद रहे क्योंकि इन देशों में ईसाइयों के प्रवेश से पूर्व ग्रीक और रोमन सभ्यताओं का प्रभाव था और उस समय निर्मित कुछ भवन, काफी कुछ टूट-फूट जाने पर भी, आज भी उपलब्ध हैं। इसी प्रकार चीन और जापान में उन्हीं की तिरछी छतदार शैलियों के भवन उपलब्ध हैं, अथवा अरब देशों में मुस्लिम मीनार शैली के भवन दिखाई देते हैं।
परन्तु भारत में आरम्भ से ही कई धर्म सभ्यताओं की शैलियाँ कार्यरत रहीं। कुछ तो, जैसे इस्लामी तथा ईसाई, बाहर से आईं, और कुछ भारतीय संस्कृति की विविध धार्मिक धाराओं की अपनी एक दूसरे से बिल्कुल अलग-अलग शैलियाँ थीं। इनमें प्राचीन हिन्दू, दक्षिण भारतीय हिन्दू तथा बौद्ध और जैन शैलियाँ हैं जो एक दूसरे से नितान्त भिन्न प्रकार की हैं।
बिलकुल प्राचीन सिन्धु धाटी सभ्यता के नगर पंजाब से राजस्थान और गुजरात के समुद्र तट तक फैले हुए हैं। इनमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ों तो अब पाकिस्तान में चले गए हैं, परन्तु गुजरात के कालीबंगन, लोथल इत्यादि भारत में ही हैं। इनकी खुदाइयों से अनेक परिणाम सामने आ रहे हैं। एकदम नयी खोजों से द्वारिका के परे समुद्र के भीतर भी नगर के खण्डहर प्राप्त हो रहे हैं, जो पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण के समय में ही समुद्र में डूब गया बताया जाता है।
हिन्दू परम्परा में उत्तर तथा दक्षिण के भवन और मन्दिर एक दूसरे से बिलकुल भिन्न प्रकार के हैं, भले ही दोनों प्रदेशों के धर्म एक ही रहे हों। मुसलमानों से युद्ध होते रहने के कारण उत्तर भारत में मन्दिरों का इतना विकास नहीं हो पाया जितना शान्ति बनी रहने के कारण दक्षिण भारत में हुआ। दक्षिण मन्दिरों के शिखर अपनी तरह के अनोखे हैं और अनेक मन्दिर तो पूरे-पूरे शहर ही हैं। बौद्ध शैली में चैत्य और स्तूपों के अलावा पहाड़ काटकर बनाई गई गुफाओं का जिनमें भीतर चित्र, मूर्तियाँ इत्यादि बनाए गए विकास हुआ, जैसे दुनिया में कहीं और नहीं हुआ। अलबत्ता, चीन में भारत अनुकरण पर क्योंकि वहाँ बौद्ध धर्म भारत से गया और फैला, कुछ स्थानों पर गुफा मन्दिर अवश्य बनाए गए। जैन मन्दिरों का शिल्प मोटे तौर पर हिन्दू शिल्प से मिलता-जुलता होने के बावजूद, इससे भिन्न रहा। दिलवाड़ा तथा माउण्ट आबू के मन्दिर तथा दक्षिण में गोमतेश्वर की अति विशाल नग्न मूर्ति इसके प्रमाण हैं।
यही नहीं, भारतीय भवन निर्माण कला का एक स्वतन्त्र शास्त्र भी यहाँ विकसित किया गया, जिसे वास्तुशास्त्र कहते हैं। इसमें मनुष्य के रहने वाले घरों, पूजा पाठ के स्थानों तथा व्यापार के लिए निर्मित भवनों, सभी को दिशाओं, ऋतुओं और नियति से जिस प्रकार जोड़ा गया, वह आश्चर्यजनक है। आज इस शास्त्र का एक बार फिर प्रचार हो रहा है और स्वयं भारत के अलावा अमेरिका इत्यादि पश्चिमी देश भी इससे लाभ उठाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
मुसलमानों ने भारत आकर अपने ढंग के अलग किले, मस्जिदें इत्यादि बनाईं। इनमें मनुष्य के चित्र तथा प्रतिमा को स्थान नहीं था, इसलिए बेलबूटे और पच्चीकारी में इसने विशेषता हासिल की। कुरान शरीफ की आयतें इतनी कलापूर्वक लिखी गईं कि आश्चर्य होता है। दिल्ली का लाल किला, जामा मस्जिद और आगरे का किला तथा ताजमहल इसके उदाहरण हैं।
फिर अंग्रेजों के भारत आगमन के साथ ईसाई धर्म आया और इनके द्वारा निर्मित भवनों पर दोनों के संयुक्त प्रभाव पड़े। जहाँ एक ओर कुछ बड़े भव्य गिरजाघर बने, वहाँ अंग्रेजों ने जो इमारतें बनवाईं, वे भी अपनी तरह की अनूठी रहीं। मुम्बई और कोलकाता चूँकि अंग्रेजों ने ही बसाए इसलिए इनके भवन इनकी कला के अद्भुत नमूने बने। मुम्बई में विक्टोरिया टर्मिनस और फोर्ट का सारा इलाका ऐसे भवनों से भरा हुआ है। इसी प्रकार कोलकाता में विक्टोरिया मेमोरियल ब्रिटिश कला का अनुपम उदाहरण है।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में आधुनिक भवन निर्माण कला जब प्रचार में आई तब राजधानी नई दिल्ली के वे अनेक भवन बने जो इस शैली के बेजोड़ नमूने हैं। इनमें कनाट प्लेस का गोलाई में बना मार्केट संसद का गोल भवन, सैकड़ों कमरों वाला विशाल राष्ट्रपति भवन और उसके सामने इण्डिया गेट का विस्तार, इत्यादि अत्यन्त प्रभावशाली तथा दर्शनीय हैं।
इस प्रकार भारत के भवनों में शैली तथा शिल्प की जो विविधता है वह अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है। इन्हीं का एक संक्षिप्त विवरण यह पुस्तक प्रस्तुत करती है।
परन्तु भारत में आरम्भ से ही कई धर्म सभ्यताओं की शैलियाँ कार्यरत रहीं। कुछ तो, जैसे इस्लामी तथा ईसाई, बाहर से आईं, और कुछ भारतीय संस्कृति की विविध धार्मिक धाराओं की अपनी एक दूसरे से बिल्कुल अलग-अलग शैलियाँ थीं। इनमें प्राचीन हिन्दू, दक्षिण भारतीय हिन्दू तथा बौद्ध और जैन शैलियाँ हैं जो एक दूसरे से नितान्त भिन्न प्रकार की हैं।
बिलकुल प्राचीन सिन्धु धाटी सभ्यता के नगर पंजाब से राजस्थान और गुजरात के समुद्र तट तक फैले हुए हैं। इनमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ों तो अब पाकिस्तान में चले गए हैं, परन्तु गुजरात के कालीबंगन, लोथल इत्यादि भारत में ही हैं। इनकी खुदाइयों से अनेक परिणाम सामने आ रहे हैं। एकदम नयी खोजों से द्वारिका के परे समुद्र के भीतर भी नगर के खण्डहर प्राप्त हो रहे हैं, जो पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण के समय में ही समुद्र में डूब गया बताया जाता है।
हिन्दू परम्परा में उत्तर तथा दक्षिण के भवन और मन्दिर एक दूसरे से बिलकुल भिन्न प्रकार के हैं, भले ही दोनों प्रदेशों के धर्म एक ही रहे हों। मुसलमानों से युद्ध होते रहने के कारण उत्तर भारत में मन्दिरों का इतना विकास नहीं हो पाया जितना शान्ति बनी रहने के कारण दक्षिण भारत में हुआ। दक्षिण मन्दिरों के शिखर अपनी तरह के अनोखे हैं और अनेक मन्दिर तो पूरे-पूरे शहर ही हैं। बौद्ध शैली में चैत्य और स्तूपों के अलावा पहाड़ काटकर बनाई गई गुफाओं का जिनमें भीतर चित्र, मूर्तियाँ इत्यादि बनाए गए विकास हुआ, जैसे दुनिया में कहीं और नहीं हुआ। अलबत्ता, चीन में भारत अनुकरण पर क्योंकि वहाँ बौद्ध धर्म भारत से गया और फैला, कुछ स्थानों पर गुफा मन्दिर अवश्य बनाए गए। जैन मन्दिरों का शिल्प मोटे तौर पर हिन्दू शिल्प से मिलता-जुलता होने के बावजूद, इससे भिन्न रहा। दिलवाड़ा तथा माउण्ट आबू के मन्दिर तथा दक्षिण में गोमतेश्वर की अति विशाल नग्न मूर्ति इसके प्रमाण हैं।
यही नहीं, भारतीय भवन निर्माण कला का एक स्वतन्त्र शास्त्र भी यहाँ विकसित किया गया, जिसे वास्तुशास्त्र कहते हैं। इसमें मनुष्य के रहने वाले घरों, पूजा पाठ के स्थानों तथा व्यापार के लिए निर्मित भवनों, सभी को दिशाओं, ऋतुओं और नियति से जिस प्रकार जोड़ा गया, वह आश्चर्यजनक है। आज इस शास्त्र का एक बार फिर प्रचार हो रहा है और स्वयं भारत के अलावा अमेरिका इत्यादि पश्चिमी देश भी इससे लाभ उठाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
मुसलमानों ने भारत आकर अपने ढंग के अलग किले, मस्जिदें इत्यादि बनाईं। इनमें मनुष्य के चित्र तथा प्रतिमा को स्थान नहीं था, इसलिए बेलबूटे और पच्चीकारी में इसने विशेषता हासिल की। कुरान शरीफ की आयतें इतनी कलापूर्वक लिखी गईं कि आश्चर्य होता है। दिल्ली का लाल किला, जामा मस्जिद और आगरे का किला तथा ताजमहल इसके उदाहरण हैं।
फिर अंग्रेजों के भारत आगमन के साथ ईसाई धर्म आया और इनके द्वारा निर्मित भवनों पर दोनों के संयुक्त प्रभाव पड़े। जहाँ एक ओर कुछ बड़े भव्य गिरजाघर बने, वहाँ अंग्रेजों ने जो इमारतें बनवाईं, वे भी अपनी तरह की अनूठी रहीं। मुम्बई और कोलकाता चूँकि अंग्रेजों ने ही बसाए इसलिए इनके भवन इनकी कला के अद्भुत नमूने बने। मुम्बई में विक्टोरिया टर्मिनस और फोर्ट का सारा इलाका ऐसे भवनों से भरा हुआ है। इसी प्रकार कोलकाता में विक्टोरिया मेमोरियल ब्रिटिश कला का अनुपम उदाहरण है।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में आधुनिक भवन निर्माण कला जब प्रचार में आई तब राजधानी नई दिल्ली के वे अनेक भवन बने जो इस शैली के बेजोड़ नमूने हैं। इनमें कनाट प्लेस का गोलाई में बना मार्केट संसद का गोल भवन, सैकड़ों कमरों वाला विशाल राष्ट्रपति भवन और उसके सामने इण्डिया गेट का विस्तार, इत्यादि अत्यन्त प्रभावशाली तथा दर्शनीय हैं।
इस प्रकार भारत के भवनों में शैली तथा शिल्प की जो विविधता है वह अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं है। इन्हीं का एक संक्षिप्त विवरण यह पुस्तक प्रस्तुत करती है।
ताजमहल
आदमी जन्मता है, काम करता है, मर जाता है। आदमी स्वयं दुर्बल है पर उसके कर्त्तव्य बड़े हैं, उसकी तदबीर बड़ी है। बड़े-बड़े जानवरों से-हाथी, ऊँट, घोड़े, साँड़ से वह बहुत छोटा, बहुत कमजोर है पर उनसे वह कहीं चतुर है, कहीं होशियार। इसी से वह इतने बड़े जानवरों को भी नाथकर उनसे अपना काम लेता है। और जिन शेर, चीते आदि जानवरों से वह काम नहीं ले पाता, उन्हें भी वह पकड़कर बस में कर लेता है और अपने बनाए चिड़ियाघरों में लाकर बन्द कर देता है। आदमी का चमत्कार है यह !
आदमी जनमते समय लाचार होता है, विवश, जो खड़ा तक नहीं हो सकता, दूसरों के हाथ पलता है। मरने पर तो वह दुनिया से गायब ही हो जाता है। जनम और मरन के मध्य ही वह काम करता है। वही काम उसके बाद बना रह जाता है-उसकी बुद्धि का काम, तदबीर से किया गया काम। खुद तो वह दुर्बल है, पर उसका काम बड़ा है, वही रह जाता है। उसके मरने के सालों-सदियों बाद तक उसकी कीर्ति चलती रहती है, जीती-जागती रहती है।
अतः आदमी भले ही कमजोर है, पर उसकी कीर्ति बड़ी है, उसका काम बड़ा टिकाऊ है। जो वह करता- गढ़ता-बनाता है, वह जल्दी नहीं मिटता। उसे वह अपने मरने के बाद भी छोड़ जाता है जो उसकी याद दिलाता है। आदमी जीता मरता है पर उसका अच्छा काम अमर रहता है। उसने इतनी ऊँची, इतनी बड़ी, इतनी सुन्दर इमारतें बनाई हैं जो आज भी जमीन पर खड़ी हैं। इस देश में भी, बाहर के दूसरे देशों में भी। मिस्र के पिरामिडों को जो देखता है, आश्चर्य में पड़ जाता है। डेढ़ हजार मील लम्बी चीन की दीवार को जो देखता है, हैरत में आ जाता है। जिन्होंने उन्हें बनाया वे कमजो़र आदमी हज़ारों सैकड़ों आ जाता है। जिन्होंने उन्हें बनाया वे कमजोर आदमी हजारों- सैकड़ों साल पहले मर गए, पर उनकी ये इमारतें आज भी खडी हैं और दुनिया के अचरजों में गिनी जाती हैं।
इन्हीं की तरह एक अचरज अपने देश का, आगरे का ताज है। ताजमहल, मुमताजमहल का मकबरा। संसार की सारी इमारतों से सुन्दर है यह ताज। इसके सदृश मधुर कोई सपना नहीं, कोई गीत नहीं। इसकी तरह कीमती कोई जवाहर नहीं, हीरा नहीं। ताज पिरामिडों की तरह ऊँचा नहीं चीनी दीवार की तरह लम्बा नहीं, पर उनसे कहीं महान् तरह ऊँचा नहीं, चीनी दीवार की तरह लम्बा नहीं, पर उनसे नहीं महान् है। ऐसी प्यारी ऐसी अनोखी ऐसी नयनाभिराम वस्तु दुनिया में कोई नहीं। आदमी आता है, ताज को देखता है और चकित हो जाता है, उसमें खो जाता है। उसकी बनावट उसकी सादगी उसकी सफाई, उसकी सुन्दरता का शिकार हो जाता है।
ताज सफेद संगमरमर का बना है। चारों कोनों पर चार ऊँची बुर्जियाँ जैसे आसमान का स्पर्श हैं, पीछे की ओर यमुना की लहरियाँ लहराती हैं। ताज यमुना किनारे बना है और जब यमुना सूखी नहीं रहती तो सम्पूर्ण इमारत की छाया उसकी लहरों में डोला करती है। यह ताज अर्जुमन्द बानो बेगम की कब्र है। अर्जुमन्द बानो बेगम प्रसिद्ध मुगल बादशाह शाहजहाँ की मलिका थी, उसके चौदह बच्चों की माँ। उसका दूसरा नाम मुमताजमहल था और इसी नाम पर इस मकबरे का नाम पड़ा-ताजमहल।
आदमी जनमते समय लाचार होता है, विवश, जो खड़ा तक नहीं हो सकता, दूसरों के हाथ पलता है। मरने पर तो वह दुनिया से गायब ही हो जाता है। जनम और मरन के मध्य ही वह काम करता है। वही काम उसके बाद बना रह जाता है-उसकी बुद्धि का काम, तदबीर से किया गया काम। खुद तो वह दुर्बल है, पर उसका काम बड़ा है, वही रह जाता है। उसके मरने के सालों-सदियों बाद तक उसकी कीर्ति चलती रहती है, जीती-जागती रहती है।
अतः आदमी भले ही कमजोर है, पर उसकी कीर्ति बड़ी है, उसका काम बड़ा टिकाऊ है। जो वह करता- गढ़ता-बनाता है, वह जल्दी नहीं मिटता। उसे वह अपने मरने के बाद भी छोड़ जाता है जो उसकी याद दिलाता है। आदमी जीता मरता है पर उसका अच्छा काम अमर रहता है। उसने इतनी ऊँची, इतनी बड़ी, इतनी सुन्दर इमारतें बनाई हैं जो आज भी जमीन पर खड़ी हैं। इस देश में भी, बाहर के दूसरे देशों में भी। मिस्र के पिरामिडों को जो देखता है, आश्चर्य में पड़ जाता है। डेढ़ हजार मील लम्बी चीन की दीवार को जो देखता है, हैरत में आ जाता है। जिन्होंने उन्हें बनाया वे कमजो़र आदमी हज़ारों सैकड़ों आ जाता है। जिन्होंने उन्हें बनाया वे कमजोर आदमी हजारों- सैकड़ों साल पहले मर गए, पर उनकी ये इमारतें आज भी खडी हैं और दुनिया के अचरजों में गिनी जाती हैं।
इन्हीं की तरह एक अचरज अपने देश का, आगरे का ताज है। ताजमहल, मुमताजमहल का मकबरा। संसार की सारी इमारतों से सुन्दर है यह ताज। इसके सदृश मधुर कोई सपना नहीं, कोई गीत नहीं। इसकी तरह कीमती कोई जवाहर नहीं, हीरा नहीं। ताज पिरामिडों की तरह ऊँचा नहीं चीनी दीवार की तरह लम्बा नहीं, पर उनसे कहीं महान् तरह ऊँचा नहीं, चीनी दीवार की तरह लम्बा नहीं, पर उनसे नहीं महान् है। ऐसी प्यारी ऐसी अनोखी ऐसी नयनाभिराम वस्तु दुनिया में कोई नहीं। आदमी आता है, ताज को देखता है और चकित हो जाता है, उसमें खो जाता है। उसकी बनावट उसकी सादगी उसकी सफाई, उसकी सुन्दरता का शिकार हो जाता है।
ताज सफेद संगमरमर का बना है। चारों कोनों पर चार ऊँची बुर्जियाँ जैसे आसमान का स्पर्श हैं, पीछे की ओर यमुना की लहरियाँ लहराती हैं। ताज यमुना किनारे बना है और जब यमुना सूखी नहीं रहती तो सम्पूर्ण इमारत की छाया उसकी लहरों में डोला करती है। यह ताज अर्जुमन्द बानो बेगम की कब्र है। अर्जुमन्द बानो बेगम प्रसिद्ध मुगल बादशाह शाहजहाँ की मलिका थी, उसके चौदह बच्चों की माँ। उसका दूसरा नाम मुमताजमहल था और इसी नाम पर इस मकबरे का नाम पड़ा-ताजमहल।
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